बिहार के हर मतदाता पर 25,000 रुपये का क़र्ज़ है
पिछले पांच वर्षों में बिहार सरकार के क़र्ज़ में 71 प्रतिशत की वृद्धि हुई है यानी 1.16 लाख करोड़ की रुपए क़र्ज़दारी है।
सच के साथ |बिहार में सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड)-भारतीय जनता पार्टी गठबंधन द्वारा वित्त के कुप्रबंधन के स्पष्ट संकेत इस बात से मिलेते हैं की राज्य सरकार भयानक कर्ज़ में डूबी हुई है। इस साल की शुरुआत में (यानि महामारी से पहले) पेश किए गए बजट अनुमानों के अनुसार, राज्य सरकार की बकाया देनदारियां या क़र्ज़ करीब 1 करोड़ 87 लाख रुपये था। अब कुछ ही दिनों में राज्य के 7.29 करोड़ मतदाता मतदान करने जा रहे हैं, इस प्रकार मतदान करने वाला हर एक मतदाता 25,461 रुपये का कर्ज़दार है। पिछले पांच वर्षों में इसमें 71 प्रतिशत की चौंका देने वाली वृद्धि हुई है। पिछले महीने स्टेट फ़ाइनेंस पर भारतीय रिज़र्व बैंक की प्रकाशित रिपोर्ट से डेटा का मिलान किया गया है। (नीचे चार्ट देखें)
23 अक्टूबर को, बिहार में एक चुनाव रैली को संबोधित करते हुए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गर्व से कहा था कि पिछले तीन-चार वर्षों में, उनकी अगुवाई में केंद्र सरकार और नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली राज्य सरकार के बीच तालमेल बहुत अधिक बढ़ा है। यहां बेहतरीन काम किया जा रहा है। जबकि राज्य की वित्तीय स्थिति पर यह डेटा दिखाता है, कि बिहार पूरी तरह दिवालिया हो गया है।
सनद रहे कि पिछले पांच वर्षों में हर मतदाता पर कर्ज़ का बोझ 71 प्रतिशत बढ़ा है, यह बढ़त जद(यू)-बीजेपी शासन की पूरी अवधि में यानि 2005 से शुरू होने वाले समय से जारी रही है (नीचे चार्ट देखें) और केवल दो साल (2015-17) में यह गति रुकी थी जब नीतीश कुमार ने पाला बदल कर अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का हाथ थामा था।
महामारी के हमले से, राज्य की वित्तीय स्थिति बिगड़ेगी और बिहार का क़र्ज़ पहाड़ की तरह बड़ा हो जाएगा।
देश के कई राज्यों पर बड़े-बड़े क़र्ज़ हैं, कुछ पर बिहार से भी ज्यादा हैं। अमीर राज्यों के मामले में, बड़े स्तर का औद्योगिकीकरण और सेवा क्षेत्र से राज्य की अर्थव्यवस्था में काफी महत्वपूर्ण योगदान होता है, इससे अर्थव्यवस्था की मांग के हिसाब से संसाधनों के जुटान में मदद होती है।
लेकिन, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे गरीब राज्यों में, इस तरह का विस्फोटक कर्ज़ यह दर्शाता है कि अर्थव्यवस्था चरमरा रही है और राज्य सरकारें अधिक से अधिक कर्ज़ पर भरोसा करके चल रही हैं। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि बिहार ने इन वर्षों में औद्योगिक क्षमता में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं की है, और न ही इसके बुनियादी ढांचे में कोई सुधार हुआ है।
राज्यों के बढ़ते क़र्ज़ का एक मुख्य कारण मोदी सरकार द्वारा राज्यों की वित्तीय सहायता पर लगातार बढ़ता शिकंजा है। इस नियंत्रण के लिए मोदी सरकार ने 2017 में माल और सेवा कर या जीएसटी को लागू किया, जो राज्य सरकारों द्वारा कराधान के माध्यम से अपने संसाधन जुटाने में राज्यों की क्षमता को एक बड़ा झटका था। इसके मुवावजे के रूप में जीएसटी उपकर के द्वारा भरपाई करने की मांग की गई थी, लेकिन यह भी राज्य सरकारों को निचोड़ने का एक साधन बन गया है।
12 वें वित्त आयोग (2005 में लागू) की सिफारिश पर, राज्यों को राज्य की जीएसडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का 3.5 प्रतिशत तक राज्य विकास ऋण (एसडीएल) जारी करके अपनी उधारी बढ़ाने की अनुमति दी गई थी। राष्ट्रीय लघु बचत कोष या एनएसएसएफ जैसे अन्य स्रोतों से उनके उधार पर अंकुश लगाया गया। तेजी से, राज्य सरकारें एसडीएल जारी करके धन जुटाने का सहारा लेने लगी। 2020 में बिहार के क़र्ज़ में एसडीएल के माध्यम से जुटाए गए लगभग 1 लाख करोड़ रुपये शामिल हैं, अर्थात कुल कर्ज़ का 54 प्रतिशत।
आईए देखें यह बिहार के लोगों को कैसे प्रभावित करता है? यदि राज्य सरकार बैंकों और बीमा कंपनियों जैसे वित्तीय संस्थानों से इतने बड़ी धनराशि लेकर कर्ज़दार हो जाती है, तो यह राज्य की सामाजिक कल्याण पर खर्च करने की क्षमता को कमजोर कर देता है, और भविष्य को कर्ज़ को चुकाने की चिंता की तरफ मोड देता है। अंतत: यह बिहार की जनता है, जिसे इस क़र्ज़ को चुकाना होगा।
भविष्य में बिहार के विकास के बारे में पीएम मोदी और सीएम नीतीश कुमार द्वारा किए गए लंबे-चौड़े दावों के बावजूद, तथ्य यह है कि उनके “डबल-इंजन” ने राज्य को क़र्ज़ की खाई में धकेल दिया है, यह दर्शाता है कि उनके दावे कितने खोखले हैं और वादे कितने भ्रामक हैं।
निवेश को बढ़ावा देने, बुनियादी ढांचे का निर्माण करने, रोजगार बढ़ाने और किसानों को अधिक मजदूरी देने और किसानों को अधिक भुगतान करने की किसी भी ठोस योजना की कमी से गरीबी से ग्रस्त राज्य में समृद्धि लाने के लिए जद(यू)-बीजेपी का दावा पूरा होने की संभावना कतई नहीं है।